Disable Copy Text

Friday, April 3, 2015

आँखों में जल रहा है





आँखों में जल रहा है बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ
पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ
कितनी उण्डेलीं आँखें बुझता नहीं धुआँ
आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ
चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ
काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में
बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ
आँखों के पोछने से लगा आग का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ
चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में
थोड़ा सा के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ

~ गुलज़ार
 

  Sep 6, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment