
और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा
न कोई भाई न बेटा न भतीजा न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम जिस्म फ़ना होते हैं
और जो इक रोज़ फ़ना होगा वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है दूसरी बन जाती है
ख़त्म यह सिलसिल-ए-ज़ीस्त भला क्या होगा
फ़ना = नष्ट, सिलसिल-ए-ज़ीस्त = जीवन-क्रम
रिश्ते सौ, जज्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं
फ़र्ज़ सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है
वही महबूब वही दोस्त वही एक अज़ीज़
दिल जिसे इश्क़ और इदराक अमल मानता है
इदराक = बुद्धि
ज़िन्दगी सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल
और यह बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छुपा खून का इक रंग भी है
जंग रहमत है कि लानत, यह सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गयी सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोज़ख़ के किसी कोने में जन्नत होगी
जलाल = तेज
ज़ख़्म खा, ज़ख़्म लगा ज़ख़्म हैं किस गिनती में
फ़र्ज़ ज़ख़्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज न राहत न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
ख़ौफ़ के रूप कई होते हैं अन्दाज़ कई
प्यार समझा है जिसे खौफ़ है वह प्यार नहीं
उंगलियां और गड़ा और पकड़ और पकड़
आज महबूब का बाजू है यह तलवार नहीं
साथियों दोस्तों हम आज के अर्जुन ही तो हैं।
~ क़ैफी आज़मी
न कोई भाई न बेटा न भतीजा न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम जिस्म फ़ना होते हैं
और जो इक रोज़ फ़ना होगा वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है दूसरी बन जाती है
ख़त्म यह सिलसिल-ए-ज़ीस्त भला क्या होगा
फ़ना = नष्ट, सिलसिल-ए-ज़ीस्त = जीवन-क्रम
रिश्ते सौ, जज्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं
फ़र्ज़ सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है
वही महबूब वही दोस्त वही एक अज़ीज़
दिल जिसे इश्क़ और इदराक अमल मानता है
इदराक = बुद्धि
ज़िन्दगी सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल सिर्फ़ अमल
और यह बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छुपा खून का इक रंग भी है
जंग रहमत है कि लानत, यह सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गयी सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोज़ख़ के किसी कोने में जन्नत होगी
जलाल = तेज
ज़ख़्म खा, ज़ख़्म लगा ज़ख़्म हैं किस गिनती में
फ़र्ज़ ज़ख़्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज न राहत न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
ख़ौफ़ के रूप कई होते हैं अन्दाज़ कई
प्यार समझा है जिसे खौफ़ है वह प्यार नहीं
उंगलियां और गड़ा और पकड़ और पकड़
आज महबूब का बाजू है यह तलवार नहीं
साथियों दोस्तों हम आज के अर्जुन ही तो हैं।
~ क़ैफी आज़मी
Submitted by: Ashok Singh
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