Disable Copy Text

Tuesday, April 7, 2015

मेरे ख़्वाबों के झरोकों को


मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझ को
मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

चार दिन की ये रिफ़ाक़त जो रिफ़ाक़त भी नहीं
उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है
ज़िंदगी यूँ तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर साँस गिराँ-बार हुई जाती है
*रिफ़ाक़त=संगति; आज़ार=मुसीबत; गिराँबार=भार से लदी

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख़्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आई है
कभी इख़्लास की मूरत कभी हरजाई है
*शबिस्तान=छुपे कोष्ठक; पैकर=आकार; इख़्लास=निश्छल; हरजाई=बेवफ़ा

प्यार पर बस तो नहीं है मिरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ
तू ने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इज़हार करूँ या न करूँ
*तबस्सुम=मुस्कान

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तिरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मिरी आँखों पे झुकी रहती हैं
*आरिज़=गाल, कपोल

तेरे हाथों की हरारत तिरे साँसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूँडती रहती हैं तख़्ईल की बाँहें तुझ को
सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में
*हरारत=गर्मी; तख़ईल=कल्पना

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूँ करने का एक और बहाना ही न हो
*अल्ताफ़-ओ-करम=दया और कृपा; मोहतात=सावधानी; पयाम=संदेश

कौन जाने मिरे इमरोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुर्बतें बढ़ के पशेमान भी हो जाती हैं
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती हैं
*इमरोज़=वर्तमान; फ़र्दा=कल (भविष्य); पशेमान=लज्जित
 
मेरी दरमांदा जवानी की तमन्नाओं के
मुज़्महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझ को
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझ को
*दरमांदा=नि:सहाय; मुज़्महिल=थके हुए; ताबीर=सपने का अर्थ; हासिल=प्राप्त

~  साहिर लुधियानवी

  Jan 12, 2011| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment