मै ये सोच कर उस के दर से उठा था
वो रोक ले गी, मना ले गी मुझ को
हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझ को
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ दे कर बुला ले गी मुझ को !
मगर उस ने रोका, न मुझ को मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझ को बिठाया
न आवाज़ ही दी न मुझको बुलाया
मै आहिस्ता आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मै
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मै.......!
~ क़ैफी आज़मी
Jan 18, 2011| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment