
भावुक मन औ' सिंधु का, एक सरीखा रूप
जिस पर जितनी तरलता, उतनी उस पर धूप
सज्जन का औ' मेघ का, कहियत एक सुभाय
खारा पानी खुद पियै, मीठा जल दे जाय
पानी पर कब पड़ सकी, कोई कहीं खरोंच
प्यासी चिड़िया उड़ गईं, मार नुकीली चोंच
जब से कद तरु के बढ़े, नीची हुई मुंडेर
ताक-झाँक करने लगे, झरबेरी के पेड़
नदियों ने जाकर किया, सागर में विश्राम
पर आवारा मेघ का, धाम न कोई ग्राम
सिसक-सिसक गेहूँ कहें, फफक-फफक कर धान
खेतों में फसलें नहीं, उगने लगे मकान
वैसे तो मिलते नहीं, नदिया के दो कूल
प्रिय ने ले निज बाँह में, खूब सुधारी भूल
मधुऋतु का कुछ यों मिला उसको प्यार असीम
कड़वे से मीठा हुआ सूखा-रूखा नीम
रस ले, रंग ले, रूप ले, होते रहे निहाल
जैसे ही पूरे पके, छोड़ चले फल डाल।
~ कुँअर बेचैन
Jan 16, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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