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Friday, April 3, 2015

यही दस्तूर है शायद वफादारी की



मुहब्बत भी अजब शय है बड़ी तकलीफ देती है,
इसी में लुत्फ़ हैं सारे, यही तकलीफ देती है।

यही दस्तूर है शायद वफादारी की दुनिया का,
जिसे जी जान से चाहो वही तकलीफ देती है।

शिकायत कर रहा था आसमान से एक सेहरा कल,
मुझे ख़्वाबों में अक्सर इक नदी तकलीफ देती है।

पलक भर का मिलन होता है दो अनजान चेहरों में,
मगर फिर उम्र भर ये इक घड़ी तकलीफ देती है।

क़ज़ा का खौफ लेकर जी रहे हैं सब ज़माने में,
हक़ीक़त में सभी को ज़िन्दगी तकलीफ देती है।

कभी मौका-बे-मौका हो तो कोई सब्र भी कर ले,
मगर आठों पहर की बेखुदी तकलीफ देती है।

सवा नेज़े पे जब आ जाएगा सूरज तो क्या होगा,
हमें तो गर्मियों की लू बड़ी तकलीफ देती है।

ज़रा कच्चे मकानों की तरफ भी तुम नज़र डालो,
जहां बारिश की हर तीखी झड़ी तकलीफ देती है।

अदावत के जिन्होंने हर तरफ परचम उड़ाए थे,
उन्हें अब दोस्तों की बेरुखी तकलीफ देती है।

नुमु होते ही जिसके बाग़बान हसरत से तकता है,
कई काँटों को वो ताज़ा कली तकलीफ देती है।

भुलाने की तगादों में जला डाले हैं खत मेरे
मगर उसको उसी की डायरी तकलीफ देती है.

नज़र आये जहां से रौशनी मस्लूब आँखों की,
बयाज़े-दिल को ऎसी शायरी तकलीफ देती है।

~ दिनेश ठाकुर


  Jun 1, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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