
आपकी दीवानगी बिल्कुल लगे मेरी तरह,
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।
इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में,
जेब में रक्खे हुए दो चेहरे, मेरी तरह।
भीड़ से पूछा किसी ने, किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल, कि सारे कह उठे मेरी तरह।
लोग, जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।
किसलिए यूँ आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर मे छेद हैं अहसास के मेरी तरह।
खुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएँ,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।
मजहबी धागे उलझते जा रहे थे, और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।
~ महेंद्र वर्मा
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।
इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में,
जेब में रक्खे हुए दो चेहरे, मेरी तरह।
भीड़ से पूछा किसी ने, किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल, कि सारे कह उठे मेरी तरह।
लोग, जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।
किसलिए यूँ आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर मे छेद हैं अहसास के मेरी तरह।
खुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएँ,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।
मजहबी धागे उलझते जा रहे थे, और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।
~ महेंद्र वर्मा
Apr 4, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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