Disable Copy Text

Friday, April 3, 2015

वो रातें याद आती हैं मुझे




'आह! वो रातें, वो रातें याद आती हैं मुझे'
आह, ओ सलमा! वो रातें याद आती हैं मुझे
वो मुलाक़ातें, वो बातें याद आती हैं मुझे
हुस्न-ओ-उलफ़त की वो घातें याद आती हैं मुझे
आह! वो रातें वो

जब तुम्हारी याद में दीवाना सा रहता था मैं
जब सुकून-ओ-सब्र से बगाना सा रहता था मैं
बेपिए मदहोश सा, दीवाना सा रहता था मैं
आह! वो रातें वो

जब तुम्हारी जुस्तुजू बेताब रखती थी मुझे
जब तुम्हारी आरज़ू बेख्वाब रखती थी मुझे
मिस्ल-ए-मौज-ए-शोला-ओ-सीमाब रखती थी मुझे
आह! वो रातें वो.....

मुनतज़िर मेरी, जब अपने बाग़ में रहती थीं तुम
हर कली से अपने दिल की दास्ताँ कहती थीं तुम
नाज़नीं होकर भी नाज़-ए-आशिक़ी सहती थी तुम
आह वो रातें वो........

सरदियों की चाँदनी, शबनम सी कुमलाती थी जब
शबनम आकर चार सू मोती से बरसाती थी जब
बाग़ पर इक धुंदली धुंदली मस्ती छा जाती थी जब
आह वो रातें वो........

जब तुम आ जाती थीं, बज़ुल्फ़-ए-परेशाँ ता कमर
इत्र पैमाँ ता बज़ानू, सुम्बुलिस्ताँ ता कमर
मुश्क आगीं ता बदामाँ, अम्बर अफ़शाँ ता कमर
आह! वो रातें वो रातें,
वो रातें याद आती हैं मुझे !

~ अख़्तर शीरानी

  Jun 9, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

1 comment:

  1. मोहब्बत के शायर, अख़्तर शीरानी ने अपनी शायरी में अपनी माशुका या प्रेयसी को जगह दी और बकायदा उसका नाम भी लिया, जिसमे सलमा, रेहाना और अज़रा शामिल है| ज़रा गौर फरमाइए:

    तेरी सूरत सरासर पैकरे-महताब* है सलमा,
    तेरा जिस्म इक हुजूमे-रेशमो-कमख़्वाब* है सलमा ।
    *=चाँद का प्रतिरूप
    *=रेशम और कमख़्वाब का ढेर

    ReplyDelete