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Tuesday, April 7, 2015

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में

Sant Kabir Das

मोको कहां ढूढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में


ना तीर्थ मे ना मूर्त में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में


मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में
Geetkar Shailendra (30 अगस्त, 1923 - 14 दिसम्बर, 1966)
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३० अगस्त 1923 में रावलपिंडी में पैदा हुआ. पिताजी फ़ौज में थे. रहने वाले हैं बिहार के. पिता के रिटायर होने पर मथुरा में रहे, वहीं शिक्षा पायी. हमारे घर में भी उर्दू और फ़ारसी का रिवाज था लेकिन मेरी रुचि घर से कुछ भिन्न ही रही. हाईस्कूल से ही राष्ट्रीय ख़याल थे. सन 1942 में बंबई रेलवे में इंजीनियरिंग सीखने आया. अगस्त आंदोलन में जेल गया. कविता का शौक़ बना रहा. अगस्त सन् 1947 में श्री राज कपूर एक कवि सम्मेलन में मुझे पढ़ते देखकर प्रभाविर हुए. मुझे फ़िल्म 'आग' में लिखने के लिए कहा किन्तु मुझे फ़िल्मी लोगों से घृणा थी. सन् 1948 में शादी के बाद कम आमदनी से घर चलाना मुश्किल हो गया. इसलिए श्री राज कपूर के पास गया. उन्होंने तुरन्त अपने चित्र 'बरसात' में लिखने का अवसर दिया. गीत चले, फिर क्या था, तबसे अभी तक आप लोगों की कृपा से बराबर व्यस्त हूँ.
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मेरा विचार है कि इससे ज़्यादा लिखूँ तो परिचय संक्षिप्त न रहकर दीर्घ हो जायेगा.
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ये आत्म परिचय शैलेन्द्र ने 18 जनवरी 1957 को लिखा था, अपने मित्र विश्वेश्वर को लिखे एक ख़त में.


तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

सुबह औ' शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर,
तू सुन ज़मीन गा रही है कब से झूम-झूमकर,
तू आ मेरा सिंगार कर, तू आ मुझे हसीन कर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जाएंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन,
कभी तो होगी इस चमन पर भी बहार की नज़र!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

हमारे कारवां का मंज़िलों को इन्तज़ार है,
यह आंधियों, ये बिजलियों की, पीठ पर सवार है,
जिधर पड़ेंगे ये क़दम बनेगी एक नई डगर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल, बढ़ेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग़ ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्क़लाब ये,
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर!
अगर कहीं है तो स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

~  शंकरदास केसरीलाल 'शैलेन्द्र'

  Jul 9, 2011| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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