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Wednesday, April 1, 2015

इस बार मिले हैं ग़म कुछ और तरह से भी



इस बार मिले हैं ग़म कुछ और तरह से भी
आँखें है हमारी नम कुछ और तरह से भी

शोला भी नहीं उठता काजल भी नहीं बनता
जलता है किसी का ग़म कुछ और तरह से भी

हर शाख़ सुलगती है हर फूल दहकता है
गिरती है कभी शबनम कुछ और तरह से भी

मंज़िल ने दिए ताने रस्ते भी हँसे लेकिन
चलते रहे अक़्सर हम कुछ और तरह से भी

दामन कहीं फैला तो महसूस हुआ यारों
क़द होता है अपना कम कुछ और तरह से भी

उसने ही नहीं देखा ये बात अलग वरना
इस बार सजे थे हम कुछ और तरह से भी

~ हस्तीमल 'हस्ती'

 
  Dec 7, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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