
ग़मे-आशिक़ी से कह दो रहे–आम तक न पहुँचे ।
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे ।
मैं नज़र से पी रहा था कि ये दिल ने बददुआ दी –
तेरा हाथ ज़िंदगी-भर कभी जाम तक न पहुँचे ।
नयी सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे ।
ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारिक,
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे ।
जो निक़ाबे-रुख उठी दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे ।
~ शकील 'बदायूँनी',
Jan 7, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment