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Friday, November 28, 2014

वर्जित फल खाने की इच्छा




वर्जित फल खाने की इच्छा
घने वनों तक ले आई।

शान्त महानद
क्रुद्ध लहर के कारण
सीमा तोड़ गया
अपने पीछे केवल
आँसू भरी कथाएँ
छोड़ गया

सागर हथियाने की इच्छा
रेत कणों तक ले आई।

निर्वासन का शाप
झेलते
कितने ही युग बीत गए
है अभियोग पुराना
लेकिन
अभियोजक हैं नए-नए

हर्षद पल पाने की इच्छा
दुखद क्षणों तक ले आई।

गई देह की आग
बची मिट्टी
पथराकर ठोस हुई
समय ज़िन्दगी यूँ धुनता है
जैसे धुनिया
धुने रुई

भीष्म कहे जाने की इच्छा
कठिन प्रणों तक ले आई।

~ गणेश गम्भीर

   May 28, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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