इस वक़्त तो यूँ लगता है कहीं कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचों में किसी हुस्न की चिलमन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
शाखों में ख्यालों की घनी पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़ाब बसेरा
शायद वो कोई वहम था मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आखिरी फेरा
अब बैर न उल्फत न रब्त न रिश्ता
अपना कोई तेरा न पराया कोई मेरा
*महताब=चाँद; चिलमन=नकाब; उल्फत=प्रेम, रब्त=घनिष्टता
माना की ये सुनसान घडी सख्त घडी है
लेकिन मेरे दिल यह तो फकत एक घडी है
हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है
*फकत=केवल
~ फैज़ अहमद 'फैज़'
April 24, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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