अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया
*एहतराम=आदर
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से निशात-ए-वस्ल का जिक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
*अज़ीयत=अत्याचार, शिद्दत=उग्रता, रावी=रावी नदी,
निशात-ए-वस्ल=मिलन की खुशी
~ परवीन शाकिर
March 30, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Ashok Singh
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