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Friday, November 28, 2014

केसर, चंदन, पानी के दिन



केसर, चंदन, पानी के दिन
लौटें चूनर धानी के दिन

झाँझें झंकृत हो जातीं थीं
जब मधुर मृदंग ठनकते थे
जब प्रणय–राग की तालों पर
नूपुर अनमोल खनकते थे
साँसें सुरभित हो जाती थीं
मोहिनी मलय की छाया में
कुंजों पर मद उतराता था
फागुन के मद की माया में

उस महारास की मुद्रा में
कान्हा राधा रानी के दिन

कटु नीम तले की छाया जब
मीठे अहसास जगाती थी
मेहनत की धूप तपेतन में
रस की गंगा लहराती थी
वे बैन, सैन, वे चतुर नैन
जो भरे भौन बतराते थे
अधरों के महके जवाकुसुम
बिन खिले बात कह जाते थे

मंजरी, कोकिला, अमलतास
ऋतुपति की अगवानी के दिन

फैली फसलों पर भोर–किरन
जब कंचन बिख़रा जाती थी
नटखट पुरवा आरक्त कपोलों
का घूँघट सरकाती थी
रोली, रंगोली, सतिये थे
अल्पना द्वार पर हँसता था
होली, बोली, ठिठोलियाँ थीं
प्राणों में फागुन बसता था

फिर गाँव गली चौबारों में
खुशियों की मेहमानी के दिन

~ रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर'


   May 11, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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