ज़रा-सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पर कतरता है
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं
किसी का न बिगाड़ों, तो कौन डरता है
*अहमियत=महत्ता
यह देखना है कि सहरा भी है, समन्दर भी
वह मेरी तश्नालबी, किसके नाम करता है
*सहरा=मरुस्थल; तश्नालबी=प्यास
तुम आ गये हो, तो कुछ चांदनी-सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़-रोज़ उतरता है
ज़मीं की कैसी वकालत हो, फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है
~ वसीम बरेलवी
May 6, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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