अजीज़ इतना ही रखो कि जी संभल जाये
अब इस क़दर भी ना चाहो कि दम निकल जाये
मोहब्बतों में अजब है दिलों का धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाये
मिले हैं यूं तो बोहत, आओ अब मिलें यूं भी
कि रूह गरमी-ए-इन्फास से पिघल जाये
*गरमी-ए-इन्फासः सांसे
मैं वोह चिराग़ सर-ए-राह्गुज़ार-ए-दुनिया
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाये
ज़िहे! वोह दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा! वोह उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाये
*खुशाः खुशी
हर एक लहज़ा यही आरजू यही हसरत
जो आग दिल में है वोह शेर में भी ढल जाये
~ उबैदुल्लाह अलीम
April 22, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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