’मीर’ को कोई क्या पहचाने मेरी बस्ती में
सब शाइर हैं जाने-माने मेरी बस्ती में।
आम हुए जिसके अफ़साने मेरी बस्ती में
वो मैं ही हूँ कोई न जाने मेरी बस्ती में।
रुत क्या आए फूल खिलाने मेरी बस्ती में
हैं काशाने-ही-काशाने मेरी बस्ती में।
*काशान=ईरान में सुन्दर इमारतों, वास्तुकला और मीनारों का नगर
घुल-मिल जाने का क़ाइल हर कोई है लेकिन
हैं आपस में सब अंजाने मेरी बस्ती में।
मेरी ग़ज़लों के शैदाई घर-घर हैं लेकिन
कौन हूँ मैं यह कोई न जाने मेरी बस्ती में।
~ एहतेराम इस्लाम
May 15, 2013 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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