यद्यपि है स्वीकार निमंत्रण
तदपि अभी मैं आ न सकूँगा
फूल बनूँ खिलकर मुरझाऊँ
मेरे वश का काम नहीं है
जिसके आगे पड़े न चलना
ऐसा कोई धाम नहीं है
तुमने गति को यति दे दी तो
कभी लक्ष्य को पा न सकूँगा
हृदय तुम्हारा पानी-जैसा
गिरे कंकड़ी तो हिल जाए
मेरा मन दर्पण जैसा है
टूटे सौ प्रतिबिम्ब दिखाए
यदि उल्टा प्रतिबिम्ब बना लो
दर्पण को बहला न सकूँगा
पल भर को वह रूप दिखाकर
अधरों को वह गीत दे दिया
वर्तमान का सुख जग भर को
मुझको करुण अतीत दे दिया
अब कोई आघात मिला तो
मैं जीवन भर गा न सकूँगा
सब कुछ बदल गया है लेकिन
घावों की शृंखला न टूटी
बहुत सरल हैं पंथ दूसरे
पर मुझसे यह राह न छूटी
सुख-वैभव दे डालोगे तो
घावों को सहला न सकूँगा
देखा नहीं किसी को मैंने
मुरझाए फूलों को चुनते
देखा नहीं किसी को अब तक
क्रंदन-गीत चाव से सुनते
रोने को अभ्यास न मुझको
लेकिन अब मुस्का न सकूँगा
~ धनंजय सिंह
April 16, 2013|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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