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Saturday, November 29, 2014

विश्वास करना चाहता हूँ कि



विश्वास करना चाहता हूँ कि
जब प्रेम में अपनी पराजय पर
कविता के निपट एकांत में विलाप करता हूँ
तो किसी वृक्ष पर नए उगे किसलयों में सिहरन होती है
बुरा लगता है किसी चिड़िया को दृश्य का फिर भी इतना हरा-भरा होना
किसी नक्षत्र की गति पल भर को धीमी पड़ती है अंतरिक्ष में
पृथ्वी की किसी अदृश्य शिरा में बह रहा लावा थोड़ा बुझता है
सदियों के पार फैले पुरखे एक-दूसरे को ढाढ़स बँधाते हैं
देवताओं के आँसू असमय हुई वर्षा में झरते हैं
मैं रोता हूँ
तो पूरे ब्रह्मांड में
झंकृत होता है दुख का एक वृंदवादन –
पराजय और दुख में मुझे अकेला नहीं छोड़ देता संसार

दुख घिरता है ऐसे
जैसे वही अब देह हो जिसमें रहना और मरना है
जैसे होने का वही असली रंग है
जो अब जाकर उभरा है

विश्वास करना चाहता हूँ कि
जब मैं विषाद के लंबे-पथरीले गलियारे में डगमग
कहीं जाने का रास्ता खोज रहा होता हूँ
तो जो रोशनी आगे दिखती है दुख की है
जिस झरोखे से कोई हाथ आगे जाने की दिशा बताता है वह दुख का है
और जिस घर में पहुँचकर, जिसके ओसारे में सुस्ताकर, आगे चलने की हिम्मत बँधेगी
वह दुख का ठिकाना है

विश्वास करना चाहता हूँ कि
जैसे खिलखिलाहट का दूसरा नाम बच्चे और फूल हैं
या उम्मीद का दूसरा नाम कविता
वैसे ही प्रेम का दूसरा नाम दुख है।

~ अशोक वाजपेयी


   April 26, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh 


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