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Friday, November 28, 2014

ऐ इश्क़ कहीं ले चल...!


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इश्क़ कहीं ले चल इस पाप की बस्ती से
नफ़रत-गह-ए-आलम से 'अनत-गह-ए-हस्ती से
इन नफ़्स-परस्तों से इस नफ़्स-परस्ती से
दूर और कहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!
*नफ़रत-गहे-आलम=घृणा से भरे हुए संसार; *लानत-गहे-हस्ती=लानत-भरे संसार; *नफ़्स-परस्तों=कामासक्तों

हम प्रेम पुजारी हैं तू प्रेम कन्हैय्या है
तू प्रेम कन्हैय्या है ये प्रेम की नय्या है
ये प्रेम की नय्या है तू इस का खेवय्या है
कुछ फ़िक्र नहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!

बे-रहम ज़माने को अब छोड़ रहे हैं हम
बेदर्द अज़ीज़ों से मुँह मोड़ रहे हैं हम
जो आस कि थी वो भी अब तोड़ रहे हैं हम
बस ताब नहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!
*ताब=सहन-शक्ति; अ़ज़ीज़ों=प्रिय बंधुओं

आपस में छल और धोके संसार की रीतें हैं
इस पाप की नगरी में उजड़ी हुई परतें हैं
याँ न्याय की हारें हैं अन्याय की जीतें हैं
सुख चैन नहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!

ये दर्द भरी दुनिया बस्ती है गुनाहों की
दिल-चाक उमीदों की सफ़्फ़ाक निगाहों की
ज़ुल्मों की जफ़ाओं की आहों की कराहों की
हैं ग़म से हज़ीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!
*दिल-चाक=दिल के टुकड़े (करने वाली); सफ़्फ़ाक=निष्ठुर

आँखों में समाई है इक ख़्वाब-नुमा दुनिया
तारों की तरह रौशन महताब-नुमा दिया
जन्नत की तरह रंगीं शादाब-नुमा दुनिया
लिल्लाह वहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!
*महताब-नुमा=चाँद सी; शादाब-नुमा=सुहानी

वो तीर हो सागर की रुत छाई हो फागुन की
फूलों से महकती हो पुरवाई घने बन की
या आठ पहर जिस में झड़ बदली हो सावन की
जी बस में नहीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!

क़ुदरत हो हिमायत पर हमदर्द हो क़िस्मत भी
'सलमा' भी हो पहलू में 'सलमा' की मोहब्बत भी
हर शय से फ़राग़त हो और तेरी इनायत भी
तिफ़्ल-ए-हसीं ले चल!
इश्क़ कहीं ले चल!

*हिमायत=तरफदार; ‘सलमा’=प्रेयसी; फ़राग़त=मुक्ति; इनायत=कृपा

~ ‘अख़्तर’ शीरानी


   May 19, 2013 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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