
बनना मिटना ही क्या जीवन?
बढ़ना ही क्या जीवन का धन?
इन बुद-बुद को देख प्रश्न
ये सहसा मन में आते ?
बुद-बुद बन-बन मिट-मिट जाते।
मिट्टी के इन लघु दीपों से
तुम को इतनी ममता क्यों है?
भरते जाते स्नेह तरल, ये होते जाते रीते
युग-युग बीते तुम को भरते, इन को पीते-पीते।
जड़ से नेह बढ़ाने को
चेतन में यह तन्मयता क्यों है?
~ हरि वल्लभ शर्मा ‘हरि’
Dec 3, 2013
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