ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !
गरजी-बरसीं सौ बार घटाएँ धरती पर
गूँजी मल्हार की तान गली-चौराहों में
लेकिन जब भी तू मिली मुझे आते-जाते
देखी रीती गगरी ही तेरी बाँहों में,
सब भरे-पुरे तब प्यासी तू,
हँसमुख जब विश्व, उदासी तू,
ओ गीले नयनोंवाली ! ऐसे आँज नयन
जो नज़र मिलाए तेरी मूरत बन जाए !
रेशम के झूले डाल रही है झूल धरा
आ आ कर द्वार बुहार रही है पुरवाई,
लेकिन तू धरे कपोल हथेली पर बैठी
है याद कर रही जाने किसकी निठुराई,
जब भरी नदी तू रीत रही,
जी उठी धरा, तू बीत रही,
ओ सोलह सावनवाली ! ऐसे सेज सजा
घर लौट न पाए जो घूँघट से टकराए !
ओ प्यासे अधरोंवाली ! इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाए यह घनश्याम न जा पाए !
~ गोपालदास "नीरज"
Jun 11, 2013
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