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Thursday, November 20, 2014

ये प्रेम के शुरूआती दिन हैं



ये प्रेम के शुरूआती दिन हैं
भागतीं हैं ट्रेन सी घटनाएं
किन्तु प्रेम करती हुई लड़की
लेटी है पाँव पसार..,
बिनसर के सूने जंगलों की लता सी!
बिना धुला,थका चेहरा भी
दमकता रहता है आज कल
त्वचा की ठीक पहली परत के नीचे
शरद की सुबह सी
अनचीन्हे फूलों से भरी होती है
प्रेम करती हुई लड़की !

हिल स्टेशन पर मौसम के
खिले दिनों की राहत सी
गुनगुनी धूप सी रहती है
आखिर वह कर रही होती है ..
दुनिया के सबसे शानदार पुरुष से प्रेम!

बेवजह बातें बेसबब
उठती बैठती भूलती है हर जरुरी काम
और आपस में ही उलझते हाथ
आजकल नहीं मानते उसकी बात!
स्मृतियों में आते ही दादी नानी की वह सीख
कि किताबों से इतर बहुत कुछ है करने सीखने को
वह लेती है राहत की सांस..
रोकने को उमगती हँसी ..
धौल जमाती है सहेली की, बेखबर पीठ पर!

प्रेम करती हुई लड़की अक्सर सोचती है
क्यों गढ़ा गया सच्चिदानंद
लिखा जा सकता था केवल प्रेम ....
क्यों मांगे गए अभयदान,
चाहे जा सकते थे प्रेम के वरदान ..
जिसे कहना चाहिए था,
प्रेम क्यों कहा गया निर्वाण..
प्रेम करती हुई लड़की के लिए
किसी काम के नही होते तर्क !
वह लड़की हैरान है
अपने नास्तिक होते जाने पर
कि उसमे उतरने लगी है हीर और
बर्खास्त चल रहे हैं नारायण!

प्रेम करती हुई लड़की,
ह्रदय में छुपाये इन्द्रधनुष
हाथों में थामे ताज महल,
जब इठलाती हुई टहलती है
वीनस पर..
सर झटकता है समय का,
दुनियादार बूढा..
और हैरत से झपकाता है,
धँसी भयभीत आँखें !!

~ वंदना शर्मा

  July 18, 2014

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