मै अकेला था कहाँ अपने सफर में
साथ मेरे छाव बन चलती रही तुम !
तुम के जैसे चांदनी हो चंद्रमा मे,
आब मोती मे, प्रणय आराधना मे,
चाहता है कौन मंजिल तक पहुंचना,
जब मिले आनंद पथ की साधना मे ।
जन्म जन्मो मैं जला एकांत घर में,
और मेरे खवाब में पलती रही तुम !
मै चला था पर्वतों के पार जाने,
चेतना के बीज धरती पर उगाने,
छू गए लेकिन मुझे हर बार गहरे,
मील के पत्थर विदा देते अजाने ।
मैं दिया बनकर तमस मे लड़ रहा था,
ताप मे बन हिम-शिला गलती रही तुम !
रह नही पाए कभी हम थके हारे,
प्यास मेरी ले गए हर सिंधु खारे,
राह जीवन की कठिन, कांटो भरी,
काट दी दो चार सुधियों के सहारे ।
सो गया मै हो थकन की नींद के वश,
और मेरे स्वप्न मे पलती रही तुम,
~ बुधिनाथ मिश्रा
Dec 16, 2013
No comments:
Post a Comment