पत्र मुझको मिला तुम्हारा कल
चांदनी ज्यों उजाड़ में उतरे
क्या बताऊँ मगर मेरे दिल पर
कैसे पुरदर्द हादसे गुजरे
यह सही है कि हाथ पतझड़ के
मैंने तन का गुलाब बेचा है
मन की चादर सफ़ेद रखने को
सबसे रंगीन ख़्वाब बेचा है।
जितनी मुझसे घृणा तुम्हे होगी
उससे ज्यादा कहीं मलिन हूँ मै
धूप भी जब सियाह लगती है
एक ऐसा उदास दिन हूँ मै।
तुम तो शायर हो, जिन्दगी सारी
बेख़ुदी में गुजार सकते हो
सिर्फ दो चार गीत देकर ही
प्यार का ऋण उतार सकते हो।
किन्तु नारी के वास्ते जीवन
इक कविता नहीं हक़ीकत है
प्यार उसका है बेज़ुबाँ सपना
आरजू इक बे-लिखा ख़त है
माँ की ममता, बाप की इज्जत
इनसे लड़ना मुहाल होता है
और छोटी बहन कि शादी का
सामने जब सवाल होता है।
एक बेनाम बेबसी सहसा
सारे संकल्प तोड़ जाती है
हर शपथ की नरम कलाई को
गर्म शीशे सा मोड़ जाती है
अपने परिवार के लिए मैं जो
मैं जो क़ुर्बान हो गयी हँसकर
ठीक ही है कि मैं बहुत खुश हूँ
होंठ भींचे हूँ क्यो कि मैं कसकर।
अपनी खामोश सिसकियों का स्वर
तुम तो क्या, मैं भी सुन नहीं सकती
प्यार का शूल यों चुभा कर मैं
ब्याह का फूल चुन नहीं सकती।
रेशमी हो या फिर गुलाबों का
पिंजरा तो सिर्फ पिंजरा ही है
यूँ तो हंसती हूँ, मुस्कुराती हूँ
घाव दिल का मगर हरा ही है।
मेरे कंधे पर टेक कर माथा
हर सुबह फूट-फूट रोती है
दोपहर है कि बीतती ही नहीं
मेरी हर शाम मौत होती है।
है कठिन एक ज़िंदगी जीना
दोहरी उम्र जी रही हूँ मै
मुझको जो कुछ न चाहिए होना
हाय केवल वही, वही हूँ मैं।
तुमने मुझको जो गीत के बदले
एक जलती मशाल दी होती
तो बियाबान रात के हाथों
क्यों जवानी मेरी बिकी होती।
किसको भाता ना घूमना जी भर
रौशनी कि विशाल वादी मैं
चाहता कौन है कि मुरझाये
उसकी ताज़ा बहार शादी में।
मुझसे नाराज हो तुम्हे हक़ है
किन्तु इतना तो फिर कहूँगी मैं
यह ना मेरा चुनाव, किस्मत है
सिर्फ यह ही, यही कहूंगी मैं
चाहते हो मुझे बदलना तो
ख़ुदकुशी के रिवाज को बदलो
दर्द के सम्राज को बदलो
पहले पूरे समाज को बदलो!।
~ बालस्वरूप 'राही'
Jun 26, 2014
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