जाने क्या हुआ कि दिन
काला सा पड़ गया।
चीजों के कोने टूटे
बातों के स्वर डूब गए,
हम कुछ इतना अधिक मिले
मिलते-मिलते ऊब गए,
आँखों के आगे सहसा -
जाला सा पड़ गया।
तुम धीरे से उठे और
कुछ बिना कहे चल दिये,
हम धीरे से उठा स्वयं को -
बिना सहे चल दिये,
खुद पर खुद के प्रश्नों का
ताला सा पड़ गया।
जाने क्या हुआ कि दिन
काला सा पड़ गया।
~ ओम प्रभाकर
July 15, 2014
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