जानता हूँ जगत मुझसे दूर होगा
पर तुम्हारे संग कुछ पल चाहता हूँ।
कठिन होगी यात्रा, राहें कँटीली,
व्यंजनायें मिलेंगी चुभती नुकीली,
कौन समझेगा हमारी वेदना को
नहीं देखेगा जगत ये आँख गीली,
प्यार अपना हम दुलारेंगे अकेले
बस तुम्हारे साथ का बल चाहता हूँ।
स्वप्न देखूँ कब रहा अधिकार मेरा
रीतियों में था बँधा संसार मेरा,
आज मन जब खोलना पर चाहता है
गगन को उड़ना नहीं स्वीकार मेरा,
भर चुके अपनी उड़ानें अभी सब जब,
मैं स्वयं का इक नया कल चाहता हूँ।
सभी अपने भाग्य का लेखा निभाते,
किसे सच्चा या किसे दोषी बताते,
नियति का है खेल इसको कौन समझे,
द्वंद में ही उलझ कर रह गये नाते,
है भला अपराध क्यों जो साँझ बेला
मैं अगर विश्राम-आँचल चाहता हूँ ।
~ मानोशी चैटर्जी
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