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Thursday, November 20, 2014

एक कनस्‍तर चार चादरें



एक कनस्‍तर चार चादरें
लिए चंद भांड़े बर्तन
घर छोड़ा आ गया शहर में
गाँव से भैया राम रतन

चार दीवारें छत दरवाजा
लिया किराये से
है ताकीद मकाँ मालिक की
निकलो बाँये से
सिर पर सूरज देह पसीना
मन पर मालिक की घुड़की
खेत छोड़ आ गया शहर में
गाँव से भैया राम रतन

काका दाऊ भाई बउआ
सब संबोधन छूट गए
मंगल कलश सुनहरे सपनों-
वाले दरके फूट गए
ढूँढ़-ढूँढ़ कर हार गया मन
बेचैनी का रोग लगा
अम्‍मा-बाबू झाँकें अक्‍सर
घाव से भैया राम रतन

अक्‍सर जाम हुए चौराहे
सड़कें झण्‍डे लिए जुलूस
ऊँची-ऊँची मीनारें
करतीं सन्‍नाटा-सा महसूस
जड़ से उखड़े अस्‍थाई-से
पेड़ों वाला जंगल है
नगरी लिपी-पुती है सिर तक
पाँव से भैया राम रतन

~ राजा अवस्थी

  Jun 18, 2014

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