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Saturday, November 22, 2014

तुम्हारी देह मुझ को

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तुम्हारी देह
मुझ को कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है।
(रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई
कुहासे-सी चेतना को मोह ले!)

तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित!)

तुम्हारे ओठ-
पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं-
(सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)

~ 'अज्ञेय' - नख शिख

   Nov 9, 2013

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