
तुम्हारी देह
मुझ को कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है।
(रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई
कुहासे-सी चेतना को मोह ले!)
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित!)
तुम्हारे ओठ-
पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं-
(सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)
~ 'अज्ञेय' - नख शिख
Nov 9, 2013
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