Disable Copy Text

Wednesday, November 19, 2014

मरीज़-ए-मुहब्बत उन्हीं का फ़साना



मरीज़-ए-मुहब्बत उन्हीं का फ़साना
सुनाता रहा दम निकलते निकलते
मगर ज़िक्र-ए-शाम-ए-अलम जब भी आया
चिराग़-ए-सहर बुझ गया जलते जलते
*ज़िक्र-ए-शाम-ए-अलम=दुखभरी शाम का ज़िक्र; चिराग़-ए-सहर=भोर का दीपक

अरे कोई वादा ख़लाफ़ी की हद है
हिसाब अपने दिल में लगा कर तो देखो
क़यामत का दिन आ गया रफ़ता रफ़ता
मुलाक़ात का दिन बदलते बदलते

इरादा था तर्क-ए-मुहब्बत का लेकिन
फ़रेब-ए-तबस्सुम में फिर आ गये हम
अभी खाके ठोकर सम्भलने न पाये
कि फिर खाई ठोकर सम्भलते सम्भलते
*तर्क-ए-मुहब्बत=प्रेम का परित्याग; फ़रेब=धोखा; तबस्सुम=मुस्कान

ऊन्हें ख़त में लिखा था दिल मुज़्तरिब है
जवाब उन का आया मुहब्बत न करते
तुम्हें दिल लगाने को किसने कहा था
बहल जायेगा दिल बहलते बहलते
*मुज़्तरिब=बेचैन, अधीर

हमें अपने दिल की तो परवा नहीं है
मगर डर रहा हूँ ये कमसिन की ज़िद है
कहीं पाए नाज़ुक में मोच आ ना जाए
दिल-ए-सख़्तजाँ को मसलते मसलते
*कमसिन=कम-उम्र; सख़्तजाँ =कठोर

वो मेहमाँ रहे भी तो कब तक हमारे
हुई शम्मा गुल और डूबे सितारे
'क़मर' इस क़दर उन को जल्दी थी घर की
वो घर चल दिये चाँदनी ढलते ढलते

~ क़मर जलालवी

   Aug 21, 2014

No comments:

Post a Comment