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Friday, November 21, 2014

प्राण तुम्हारी पद-रज फूली



प्राण तुम्हारी पद-रज फूली
मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की
यह धूली!
प्राण तुम्हारी पद-रज फूली!

आई थी तो जाना भी था -
फिर भी आओगी, दुःख किसका?
एक बार जब दृष्टिकरों के, पद चिह्नों की रेखा छू ली!
प्राण तुम्हारी पद-रज फूली!

वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी,
गीत शब्द का कब अभिलाषी?
अंतर में पराग-सी छाई है स्मृतियों की आशा धूली!
प्राण तुम्हारी पद-रज फूली!

~ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन `अज्ञेय'

   Nov. 23, 2013

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