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Wednesday, November 19, 2014

हास्य कविता, भवन उद्घाटन

 

एक महाविद्यालय में
नए विभाग के लिए,
नया भवन बनवाया गया...
उसके उद्घाटन के लिए,
महाविद्यालय के एक पुराने छात्र,
लेकिन नए नेता को बुलवाया गया...

अध्यापकों ने कार के दरवाज़े खोले,
और नेताजी उतरते ही बोले...

यहां तर गईं, कितनी ही पीढ़ियां,
अहा... वही पुरानी सीढ़ियां...
वही पुराना मैदान, वही पुराने वृक्ष,
वही पुराना कार्यालय, वही पुराने कक्ष...
वही पुरानी खिड़की, वही जाली,
अहा देखिए, वही पुराना माली...

मंडरा रहे थे, यादों के धुंधलके,
थोड़ा और आगे गए चलके...
वही पुरानी चमगादड़ों की साउंड,
वही घंटा, वही पुराना प्लेग्राउंड...
छात्रों में वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी...

नमस्कार, नमस्कार...
अब आया होस्टल का द्वार...
होस्टल में वही पुराने कमरे,
वही पुराना खानसामा...
वही धमाचौकड़ी,
वही पुराना हंगामा...

नेताजी पर,
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं...
तभी पाया,
एक कमरे से कुछ ज़्यादा ही आवाज़ें आ रही थीं...

उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया...
लड़के ने खोला, पर घबराया...
क्योंकि अन्दर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी...

दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के...
आइए सर, मेरा नाम मदन है,
इनसे मिलिए, मेरी कज़न है...

नेताजी लगे मुस्कुराने,
वही पुराने बहाने... !

~ अज्ञात

September 23, 2014

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