अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को,
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन,
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम,
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को
*तर्क-ए-उल्फ़त=प्रेम में सम्बंध विच्छेद
मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी,
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को
मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता-ज़न भी,
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को
तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी,
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को
*ख़ुद-परस्ती=घमंड
बाँध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब,
कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को
*ग़र्क़ाब=भँवर; संग-ए-वफ़ा=वफ़ा का पत्थर
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन,
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे,
तू दबे-पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ,
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को
बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील',
शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को
*बादा=मदिरा, शराब
Nov 19, 2014 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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