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Thursday, November 20, 2014

सपने जीते हैं, मरते हैं



सपने जीते हैं, मरते हैं
सपनों का अंत नहीं होता

बाहों में कंचन तन घेरे
आँखों-आँखों मन को हेरे
या फिर सितार के तारों पर
बेचैन उँगलियों को फेरे-
बिन आँसू से आँचल भीगे
कोई रसवंत नहीं होता।

सोने से हिलते दाँत मढ़े
या कामसूत्र के मंत्र पढ़े
चाहे ख़िज़ाब के बलबूते
काले केशों का भरम गढ़े-
जो रोके वय की गति-विधियाँ
ऐसा बलवंत नहीं होता।

साधू भी कहाँ अकेले हैं
परिवार नहीं तो चेले हैं
एकांतों के चलचित्रों से
यादों के बड़े झमेले हैं-
जिस्मानी मन के मरे बिना
कोई भी संत नहीं होता।

~ शिव बहादुर सिंह भदौरिया

   Jun 22, 2014

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