सुनो प्रिय
तृषित पिहु सा मेरा ह्रदय
और,'स्वाति' की एक बूँद सा
तुम्हारा प्रेम
'अश्विनी' का उन्माद भरे
'भरणी' से प्रतीक्षारत
तुम्हारी आस पर
'कृतिका' सा नीरस हो चला
'रोहिणी' जगाती है
पुनः आस तुम्हारे
मिलन की
और तपने लगी है
'मेरी सुकुमार देह 'मृगशिरा' सी
बरसा दो,तुम 'आर्द्रा' सी बूँदें
और 'पुनर्बसू' हो जाए
मेरा तन-मन
संतृप्त हो जाए 'पुष्य' सा
बह जाएँ समस्त विकार 'मेघा' से
लग जाओ 'आश्लेषा' से अंजन
बनकर नयनों में
और महारास हो जाए मेरा
प्रेम 'विशाखा' की मधुयामिनी में
नव जीवन सा प्रस्फुटित हो
'अनुराधा' संग और 'ज्येष्ठा'
'मूल' हो जाए मेरा यौवन
'पूर्वी' सी अभिलाषा में
तुम 'हस्त' सदृश बरस जाओ
और 'चित्र' सा इन्द्रधनुषी
हो जाए मेरा आँचल
भिगो जाओ 'आसाढी' बदरा
बन कर मनमीत और
'श्रवण' सी हरी- भरी हो जाए
मेरी मेहँदी की लाली
और 'घनिष्ठा' सा आतुर
मेरा प्रेम,'शक्तिभिषा' के उदय
संग,निरख-निरख जाए
और,सौंधी-सौंधी सी खुशबू के साथ
'उत्तरा भाद्रपद' से गीले अधर
पुनः 'रेवती' में मधुसिंचित हो चले
बौराई अमराई सी उमड़ती
'पूर्वा फाल्गुनी' की बयार सी
मेरी कामनाएं
पुनः निर्बाध हो चलीं हैं
और 'उत्तरा फाल्गुनी' सी शपा
गुलाल हो चले मेरे रक्तिम कपोल
हाँ! तुम नक्षत्र हो
और मैं चन्द्र सदृश
विचरती हूँ
तुम्हारे ही निकट तुम्हारे लिए
~ शर्मिष्ठा पाण्डेय
Dec 20, 2014
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