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Wednesday, November 19, 2014

प्‍यार को दायरों में यूँ ना बांधिए

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प्‍यार को दायरों में यूँ ना बांधिए
प्‍यार दूरी नहीं है मिलन भी नहीं

अर्थ और भाव के शब्‍दकोशों में ये
जितना उलझा है, उतना विवादित हुआ
जीत भी एक ख़त है महज हार का
इसमें जीता है जो भी पराजित हुआ
सच कहूँ थोड़ी मुश्क़िल तो होगी मगर
आत्‍मा भी नहीं, ये बदन भी नहीं

कल्‍पना के परीलोक में तो सदा
खुरदरी-सी दीवारें भी समतल मिलीं
सत्‍य के पर धरातल पे देखा अगर
सब छुअन एक पागल-सा घर्षण मिलीं
कल वो जोड़ी जो यमुना के तट पर दिखी
इसमें राधा नहीं थी, किशन भी नहीं

छल का बदनाम-सा गिद्ध हर एक दिन
श्राप खाता रहा और चिरायु हुआ
और पंछी ये अहसास-विश्‍वास का
परकटा छटपटाता जटायु हुआ
मन की रामायणों की अयोध्‍याओं में
उर्मिला भी नहीं है, लखन भी नहीं

उस छुअन में छिपे सब चमकदार भय
जब ह‍थेली में आए तो सच हो गए
प्‍यार मुझसे लिपटकर के रोया बहुत
तर्क जब वासना का कवच हो गए
काठ की उस सजीली-सी वीणा के संग
कोई मीरा नहीं है, मोहन भी नहीं

~ कुमार पंकज

  August 24, 2014

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