
इमरोज़ -अमृता
जब भी चाहा
तुम्हे पढ़ना ,
पढ़ पाई
दो ही वर्क ..
तीसरा पन्ना
पलटते ही ...
अक्सर , आ जाती तुम
और बतियाने लगती मुझसे ...
मैं उतर जाती
तुम्हारी बातों में इतना ...
कि , लुप्त हो जाता
फासला ....
समंदर और किनारे का
और मैं ,
बह जाती उन नीली
निश्छल जलतरंगों में .....
अब
जब चली गयी हो तुम
तब खुला है ये भेद
मुझ पर ...कि
क्यूँ नही पलट पाती थी
मैं , वो तीसरा पन्ना .....
क्यूंकि , तुम
चाहती थी
उसे खुद पढना ...
तभी तो
एक ही सांस में
उतर गई हो तुम
मेरे भीतर ....
और मैं ....
सुन रही हूँ ..
तुम्हें
तुम्हारे भीतर से ........!!
~ अंजू अनन्या
Nov 11, 2013
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