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Saturday, November 22, 2014

दीवाली के दीप जले



नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले

धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले

नर्म लबों ने ज़बान खोलीं फिर दुनिया से कहने को
बे-वतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों-लाखों दीप-शिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले

लाखों नयन-दीप जलते हैं तुझे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीप जले

ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले

~ रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी

   Nov 2, 2013

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