
निरे पत्थर नहीं हो तुम
अतगत अचल, निष्ठुर , कठोर
आँखें मूंदे रहो, युग बीतता रहे
किसी सिद्धि की प्रतीक्षा में
या किसी पुक्कस पुजारी की दया-दृष्टि
तुम पर ऐसे पड़े कि तुम सहज ही
अवगति को उपलब्ध हो जाओ
और उसके ओट में अपने खोट का
खुलेआम बोली लगाओ
फिर उसके बाजारू वरदान से
उसके मंदिरों की शोभा बढ़ाओ
ताकि पत्थर ह्रदय जरूर खींचे आयें
फूलों से तुम्हें ही चोट दे जाए
या तुम वो पत्थर भी नहीं हो
जो अपना भविष्य, प्रतिभा और शक्ति लिए
किसी के चरण पर लोट जाए
उसकी अवांछित ठोकर से बस चोट खाए
वह तुम्हारा उपयोग करते हुए
अपने रास्ते पर सजा ले
व तुमपर मुधा मुक्ति का
चीवर चढ़ा कर खुद भोग का मजा ले
तुम उसकी भक्ति में सब भूलकर
उसकी मदारीगिरी की महिमा का गान करो
उसके बजाये डमरू पर खूब नाचो
और उसके फूंके मंत्र से राख समेटो
यदि सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण अभ्यास करके
आत्मपीड़न हेतु पत्थर ही होना चाहते हो तो
वो पारस पत्थर नहीं हो पाओ
तो कोई बात नहीं
खुद को परख लो तो हीरा हो जाओ
यदि नहीं तो अपने कोने-कातर में दबी
चिंगारियों को रगड़ तो सकते हो
एक आग तो पैदा कर सकते हो
और जड़ पत्थर के छाती को कुरेद कर
अपने धुंधकारी आँच से धधका तो सकते हो
या तो वह अपनी कुरूपताओं की अंगीठी में
अँधेरा समेत पूरी तरह से जल जाए
या फिर उल्कापाती अँगारा हो जाए
आज ही इस महाप्रलयी अँधेरा को हराना है
हाँ ! अँगारा होकर अँगारा को जगाना है .
~ अमृता तन्मय
Nov 2, 2013
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