Disable Copy Text

Tuesday, March 31, 2015

इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं



इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूं गधे ही गधे हैं

गधे हँस रहे आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है

जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया ये बालम गधों के लिये है

ये दिल्ली ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है

पिलाए जा साकी पिलाए जा डट के
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके

मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं

घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो

यहाँ आदमी की कहां कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है

जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है

जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

मैं क्या बक गया हूं ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं

मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था भीतर जो अटका हुआ था

~ ओम प्रकाश 'आदित्य'


  Dec 28, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

1 comment:

  1. हमारे गदर्भ-समाज का सार्वजनिक अपमान - मानहानि का मुक़दमा दायर करना पड़ेगा श्रीमन "आदित्य" के ख़िलाफ़ ! :)

    - मुकेश कक्कड़

    ReplyDelete