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Monday, March 30, 2015

रूप की गुण की रसीली



जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की रसीली ।

वृद्ध हूँ मैं वृद्ध की क्या
साधना की सिद्धी की क्या
खिल चुका है फूल मेरा
पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली ।

चढ़ी थी जो आँख मेरी
बज रही थी जहाँ भेरी

वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है ।
जीर्ण है वह आज तीली ।

आग सारी फुक चुकी है
रागिनी वह रुक चुकी है
स्मरण में आज जीवन
मृत्यु की है रेख नीली ।

~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


   Jan 24, 2013| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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