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Tuesday, March 31, 2015

न चन्दन फूल की वेला



पर्व ज्वाला का, नहीं वरदान की वेला !
न चन्दन फूल की वेला !

चमत्कृत हो न चमकीला
किसी का रूप निरखेगा,
निठुर होकर उसे अंगार पर
सौ बार परखेगा
खरे की खोज है इसको, नहीं यह क्षार से खेला !

किरण ने तिमिर से माँगा
उतरने का सहारा कब ?
अकेले दीप ने जलते समय
किसको पुकारा कब ?
किसी भी अग्निपंथी को न भाता शब्द का मेला !

किसी लौ का कभी सन्देश
या आहूवान आता है ?
शलभ को दूर रहना ज्योति से
पल-भर न भाता है !
चुनौती का करेगा क्या, न जिसने ताप को झेला !

खरे इस तत्व से लौ का
कभी टूटा नहीं नाता
अबोला, मौन भाषाहीन
जलकर एक हो जाता !
मिलन-बिछुड़न कहाँ इसमें, न यह प्रतिदान की वेला !

सभी का देवता है एक
जिसके भक्त हैं अनगिन,
मगर इस अग्नि-प्रतिमा में
सभी अंगार जाते बन !
इसी में हर उपासक को मिला अद्वैत अलबेला !

न यह वरदान की वेला
न चन्दन फूल का मेला !
पर्व ज्वाला का, न यह वरदान की वेला।

~ महादेवी वर्मा ('अग्निरेखा' संकलन से)


   Dec 21, 2012| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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