छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को
इन्द्र-धनुष के रंगों को
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल
मधुकर की वीणा अनमोल
कह तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल
सुधा रश्मि से उतरा जल
ना अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!
~ सुमित्रानंदन पंत (रचनाकाल: जनवरी 1918)
Mar 1, 2013| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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