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Monday, March 30, 2015

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं




तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरीं की तरह
हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें
लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह
फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं
*उफ़क= क्षितिज

कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह
इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं

यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए
खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम -
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

~ साहिर 'लुधियानवी'


   Mar 3, 2013| e-kavya.blogspot.com 
   Submitted by: Ashok Singh

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