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Monday, March 30, 2015

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को




तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
कि ख़ुद जुदा है तो मुझसे न कर जुदा मुझको

वो कँपकपाते हुए होंठ मेरे शाने पर
वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझको
* शाने=काँधे, मानिंद=तरह

चटक उठा हूँ सुलगती चटान की सूरत
पुकार अब तो मिरे देर-आश्ना मुझको
*देर-आश्ना=चिर-परिचित

तुझे तराश के मैं सख़्त मुनफ़इल हूँ कि लोग
तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझको
*मुनफ़इल=शर्मिंदा, सनम=मूर्ति

ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा
कभी-कभी यही शोला बुझा गया मुझको

ये क़ुर्बतें ही तो वज्हे- फ़िराक़ ठहरी हैं
बहुत अज़ीज़ है याराने-बेवफ़ा मुझको
*क़ुर्बतें=करीबी, वज्हे- फ़िराक़=जुदाई की वजह, अज़ीज़=प्रिय

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
वो एक शख़्स कि शाइर बना गया मुझको
*सुख़न-शनास=बात समझने वाला

उसे ‘फ़राज़’ अगर दुख न था बिछड़ने का
तो क्यों वो दूर तलक देखता रहा मुझको

~ अहमद फ़राज़


   Feb 26, 2013| e-kavya.blogspot.com 
   Submitted by: Ashok Singh

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