
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।
मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;
*मनोविनोद=मनोरंजन, नैसर्गिक=प्राकृतिक
सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिराएँ हुईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।
*श्रम-सीकर=पसीना, निर्झर=झरना,
*शक्त (शक्तिमय) शिराएँ (धमनियाँ) हुईं रक्त-वाह (रक्त का प्रवाह) ले
~ सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Feb 15, 2013| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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