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Monday, March 30, 2015

आधे से ज्यादा जीवन



आधे से ज्यादा जीवन
जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ-
क्यों जीता हूँ?
लेकिन एक सवाल अहम
इससे भी ज्यादा,
क्यों मैं ऐसा सोच रहा हूँ?

संभवतः इसलिए कि
जीवन कर्म नहीं है अब
चिंतन है,
काव्य नहीं है अब
दर्शन है ।

जबकि परीक्षाएँ देनी थीं
विजय प्राप्त करनी थी
अजया के मन-तन पर,
सुंदरता की ओर ललकना और ढलकना
स्वाभाविक था,
जब कि शत्रु कि चुनौतियाँ बढ़ कर लेनी थीं,
जग के संघर्षों में अपना
पित्ता-पानी दिखलाना था,
जबकि हृदय के बाढ़-बवंडर
औ' दिमाग के बड़वानल को ,
शब्द-बद्ध करना था,
छंदों में गाना था,
तब तो मैंने कभी न सोचा,
क्यों जीता हूँ?
क्यों पागल सा
जीवन का कटु-मधु पीता हूँ ?

आज दब गया है बड़वानल,
और बवंडर शांत हो गया,
बाढ़ हट गई
उम्र कट गई
सपने सा बीता लगता है
आज बड़ा रीता-रीता है
कल शायद इससे ज्यादा हो,
अब तकिये के तले
उमर ख़ैयाम नहीं हैं,
जन-गीता है ।

~ हरिवंशराय बच्चन


   Feb 2, 2013| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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