
ऐसी है उधेड़बुन जिसको लाख मनाऊँ साथ न छोड़े
उधर तुम्हारी प्रीत पुकारे, इधर ज़माना हाथ न छोड़े
भाँति-भाँति की बातें आती रहती हैं इस पागल मन में
कभी तुम्हें दोषी ठहराता, कभी बिठा लेता पूजन में
भला या बुरा चाहे जैसा, मगर सोचता सिर्फ़ तुम्हीं को
अनुभव रखने वाले शायद, कहते होंगे प्यार इसी को
दुनियादार कभी बन जाऊँ, कभी प्यार में गोते खाऊँ
कभी सशंकित, कभी अचंभित, कभी समर्पित-सा हो जाऊँ
कभी बुद्धि संकल्प करे फिर डाँवाडोल कभी हो जाए
इसे तुम्हारी ख़ुशी समझ कर अपने भ्रम में ही इतराए
कभी पुरानी परंपरा कोई फिर से हावी हो जाए
बुद्धि संकुचित हो जाए तब अपने ऊपर ही पछताए
इसी डूबने-उतराने का खेल न जाने कब से चलता
ले हिचकोले जीवन-बेड़ा कभी बहकता, कभी संभालता
सरल नहीं संघर्ष प्रिये यह, लेकिन जूझ रहा मैं अब तक
भीतर कोई ताक़त है जो मुझको कभी अनाथ न छोड़े
~ आशुतोष द्विवेदी
Jan 8, 2013| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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