
सभी पाठकों को '2012 क्रिसमस' की शुभ कामनाएँ ।
प्रस्तुत है हरिवंश राय बच्चन जी की कविता। इस श्रंखला की कविताएं 1960-70 के दशक में लिखी थीं। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच कर जीवन की वास्तविकता के संबंध में उनके मन में अनेक भाव उठे।
बच्चनजी के शब्दों में, "मेरी कविता मोह से प्रारंभ हुई थी और मोह-भंग पर समाप्त हो गयी।"
जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
सिमट गई किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुड़ियाँ पंकज की,
दिवस चला छिति से मुँह मोड़।
तिमिर उतरता है अम्बर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।
जो दुनिया जगती, वह सोती;
उस दिन की सन्ध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।
नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।
अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
जाल-समेटा करने में भी,
वक़्त लगा करता है, माँझी,
मोह मछलियों का अब छोड़
~ हरिवंशराय बच्चन
Dec 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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